Thursday 20 September 2012

sahifa-e-kamila--sajjadia-63rd-dua--urdu-tarjuma-in-hindi--by-imam-zainul-abedin-a.s



तिरसठवीं दुआ
दुआए रोज़े दोशम्बा


तमाम तारीफ़ें उस अल्लाह तआला के लिये हैं के जब उसने ज़मीन व आसमान को ख़ल्क़ फ़रमाया तो किसी को गवाह नहीं बनाया, और जब जानदारों को पैदा किया तो अपना कोई मददगार नहीं ठहराया। उलूहियत में कोई उसका शरीक और वहदत (व इन्फ़ेरादियत से मख़सूस होने) में कोई उसका मआवुन नहीं है। ज़बानें उसकी इन्तिहाए सिफ़ात के बयान करने से गंग और अक़्लें उसकी मारेफ़त की तह तक पहुंचने से आजिज़ हैं। जाबिर व सरकश उसकी हैबत के सामने झुके हुए, चेहरे नक़ाबे ख़शयत ओढ़े हुए और अज़मत वाले उसकी अज़मत के आगे सर अफ़गन्दा हैं। तो बस तेरे ही लिये हम्द व सताइश है पै दर पै, लगातार, मुसलसल, पैहम। और उसके रसूल (स0) पर अल्लाह तआला की अबदी रहमत और दाएम व जावेदानी सलाम हो। बारे इलाहा! मेरे इस दिन के इब्तिदाई हिस्से को सलाह व दुरूस्ती, दरमियानी हिस्से को फ़लाह व बहबूदी और आख़ेरी हिस्से को कामयाबी व कामरानी से हमकिनार क़रार दे। और उस दिन से जिसका पहला हिस्सा ख़ौफ़, दरम्यिानी हिस्सा बेताबी और आखि़री हिस्सा दर्द व अलम लिये हुए, तुझसे पनाह मांगता हूं। बारे इलाहा! हर उस नज़र के लिये जो मैंने मानी हो, हर उस वादे की निस्बत जो मैंने किया हो और हर उस अहद व पैमान की बाबत जो मैंने बान्धा हो फिर किसी एक को भी तेरे लिये पूरा न किया हो। तुझसे अफ़ो व बख़्शिश का ख़्वास्तगार हूं और तेरे बन्दों के उन हुक़ूक़ व मज़ालिम की बाबत जो मुझ पर आयद होते हैं, तुझसे सवाल करता हूं के तेरे बन्दों में से जिस बन्दे का और तेरी कनीज़ों में से जिस कनीज़ का कोई हक़ मुझ पर हो, इस तरह के ख़ुद उसकी ज़ात या उसकी इज़्ज़त या उसके माल या उसके अह्लो औलाद की निस्बत में मज़लेमा का मुरतकिब हुआ हूं या ग़ीबत के ज़रिये उसकी बदगोई की हो या (अपने ज़ाती) रूझान या किसी ख़्वाहिश या रउनत या ख़ुद पसन्दी या रिया, या अस्बेयत से उस पर नाजाएज़ दबाव डाला हो, चाहे वह ग़ाएब हो या हाज़िर, ज़िन्दा हो या मर गया हो, और अब उसका हक़ अदा करना या उससे तहल्लुल मेरे दस्तरस से बाहर और मेरी ताक़त से बाला हो तो ऐ वह जो हाजतों के बर लाने पर क़ादिर है और वह हाजतें उसकी मशीयत के ज़ेरे फ़रमान और उसके इरादे की जानिब तेज़ी से बढ़ती हैं। मैं तुझसे सवाल करता हूं के तू मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमाए और ऐसे शख़्स को जिस तरह तू चाहे मुझसे राज़ी कर दे और मुझे अपने पास से रहमत अता कर। बिला शुबह मग़फ़ेरत व आमरज़िश से तेरे हां कोई कमी नहीं  होती और न बख़्शिश व अता से तुझे कोई नुक़सान पहुंच सकता है। ऐ रहम करने वालों में सबसे ज़्यादा रहम करने वाले। बारे इलाहा! तू मुझे दोशम्बे के दिन अपनी जानिब से दो नेमतें मरहमत फ़रमा। एक यह के इस दिन के इब्तिदाई हिस्से में तेरी इताअत के ज़रिये सआदत हासिल हो और दूसरे यह के इसके आखि़री हिस्से में तेरी मग़फ़ेरत के बाएस नेमत से बहरामन्द हूं। ऐ व हके वही माबूद है और उसके अलावा कोई गुनाहों की बख़्श नहीं सकता।

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