Thursday 20 September 2012

Sahifa-e-Kamila, Sajjadia 39th dua (urdu tarjuma in HINDI) by imam zainul abedin a.s.



उन्तालीसवीं दुआ
तलबे अफ़ो व रहमत के लिये यह दुआ पढ़ते

बारे इलाहा! मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हर अम्रे हराम से मेरी ख़्वाहिश (का ज़ोर) तोड़ दे और हर गुनाह से मेरी हिरस का रूख़ मोड़ दे और हर मोमिन और मोमिना, मुस्लिम और मुस्लिमा की ईज़ारसानी से मुझे बाज़ रख। 
ऐ मेरे माबूद! जो बन्दा भी मेरे बारे में ऐसे अम्र का मुरतकिब हो जिसे तूने उस पर हराम किया था और मेरी इज़्ज़त पर हमलावर हुआ हो जिससे तूने उसे मना किया था। मेरा मज़लेमा लेकर दुनिया से उठ गया हो या हालते हयात में उसके ज़िम्मे बाक़ी हो तो उसने मुझ पर जो ज़ुल्म किया है उसे बख़्श दे और मेरा जो हक़ लेकर चला गया है, उसे माफ़ कर दे और मेरी निस्बत जिस अम्र का मुरतकिब हुआ है उस पर उसे सरज़न्श न कर और मुझे अर्ज़दह करने के बाएस उसे रूसवा न फ़रमा और जिस अफ़ो व दरगुज़र की मैंने उनके लिये कश की है और जिस करम व बख़्शिश को मैंने उनके लिये रवा रखा है उसे सदक़ा करने वालों के सदक़े से पाकीज़ातर और तक़र्रूब चाहने वालों के अतियों से बलन्दतर क़रार दे और इस अफ़ो व दरगुज़र के एवज़ तू मुझसे दरगुज़र कर और उनके लिये दुआ करने के सिले में मुझे अपनी रहमत से सरफ़राज़ फ़रमा ताके हम में से हर एक तेरे फ़ज़्ल व करम की बदौलत ख़ुश नसीब हो सके और तेरे लुत्फ़ व एहसान की वजह से नजात पा जाए।

ऐ अल्लाह! तेरे बन्दों में से जिस किसी को मुझसे कोई ज़रर पहुंचा हो या मेरी जानिब से कोई अज़ीयत पहुंची हो या मुझसे या मेरी वजह से उस पर ज़ुल्म हुआ हो इस तरह के मैंने उसके किसी हक़ को ज़ाया किया हो या उसके किसी मज़ालिमे की दादख़्वाही न की हो। तू  मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और अपनी ग़िना व तवंगरी के ज़रिये उसे मुझसे राज़ी कर दे और अपने पास से उसका हक़ बे कम व कास्त अदा कर दे। फिर यह के उस चीज़ से जिसका तेरे हुक्म के तहत सज़ावार हूं, बचा ले और जो तेरे अद्ल का तक़ाज़ा है उससे निजात दे, इसलिये के मुझे तेरे अज़ाब के बरदाश्त करने की ताब नहीं और तेरी नाराज़गी के झेल ले जाने की हिम्मत नहीं। लेहाज़ा अगर तू मुझे हक़ व इन्साफ़ की रू से बदला देगा तो मुझे हलाक कर देगा। और अगर दामने रहमत में नहीं ढांपेगा तो मुझे तबाह कर देगा।

ऐ अल्लाह! ऐ मेरे माबूद! मैं तुझसे उस चीज़ का तालिब हूं जिसके अता करने से तेरे हाँ कुछ कमी नहीं होती और वह बार तुझ पर रखना चाहता हूँ जो तुझे गरांबार नहीं बनाता और तुझसे इस जान की भीक मांगता हूं जिसे तूने इसलिये पैदा नहीं किया के उसके ज़रिये ज़रर व ज़ेयां से तहफ़्फ़ुज़ करे या मुनफ़अत की राह निकाले बल्कि इसलिये पैदा किया ताके इस अम्र का सुबूत बहम पहुंचाए और इस बात पर दलील लाए के तू इस जैसी और इस तरह की मख़लूक़ पैदा करने पर क़ादिर व तवाना है और तुझसे इस अम्र का ख़्वास्तगार हूं के मुझे उन गुनाहों से सुबकबार कर दे जिनका बार मुझे हलकान किये हुए है और तुझसे मदद मांगता हूं उस चीज़ की निस्बत जिसकी गरांबारी ने मुझे आजिज़ कर दिया है। तू मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मेरे नफ़्स को बावजूद यह के उसने ख़ुद अपने ऊपर ज़ुल्म किया है, बख़्श दे और अपनी रहमत को मेरे गुनाहों का बारे गराँ उठाने पर मामूर कर इसलिये के कितनी ही मरतबा तेरी रहमत गुनहगारों के हमकिनार और तेरा अफ़ो व करम ज़ालिमों के शामिले हाल रहा है। तू मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मुझे उन लोगों के लिये नमूना बना जिन्हें तूने अपने अफ़ो के ज़रिये ख़ताकारों के गिरने के मक़ामात से ऊपर उठा लिया। और जिन्हें तूने अपनी तौफ़ीक़ से गुनहगारों के मोहलकों से बचा लिया तो वह तेरे अफ़ो व बख़्शिश के वसीले से तेरी नाराज़गी के बन्धनों से छूट गए और तेरे एहसान की बदौलत अद्ल की लग़्िज़शों से आज़ाद हो गए। 
ऐ मेरे अल्लाह! अगर तू मुझे माफ़ कर दे तो तेरा यह सुलूक उसके साथ होगा जो सज़ावारे उक़ूबत होने से इन्कारी नहीं है और न मुस्तहेक़े सज़ा होने से अपने को बरी समझता है। यह तेरा बरताव उसके साथ होगा ऐ मेरे माबूद। जिसका ख़ौफ़ उम्मीदे अफ़ो से बढ़ा हुआ है और जिसकी निजात से नाउम्मीदी, रेहाई की तवक़्क़ो से क़वीतर है। यह इसलिये नही ंके उसकी ना उम्मीदी रहमत से मायूसी हो या यह के उसकी उम्मीद फ़रेबख़ोरदगी का नतीजा हो बल्कि इसलिये के उसकी बुराइयां नेकियों के मुक़ाबले में कम और गुनाहों के तमाम मवारिद में उज़्र ख़्वाही के वजूह कमज़ोर हैं। लेकिन ऐ मेरे माबूद! तू इसका सज़ावार है के रास्तबाज़ लोग भी तेरी रहमत पर मग़रूर होकर फ़रेब न खाएं और गुनहगार भी तुझसे नाउम्मीद न हों। इसलिये के तू वह रब्बे अज़ीम है के किसी पर फ़ज़्ल व एहसान से दरीख़ नहीं करता और किसी से अपना हक़ पूरा पूरा वसूल करने के दरपै नहीं होता। तेरा ज़िक्र तमाम नाम आवरों (के ज़िक्र) से बलन्दतर है और तेरे असमाअ इससे के दूसरे हसब व नसब वाले उनसे मौसूम हों मुनज़्जह हैं। तेरी नेमतें तमाम कायनात में फैली हुई हैं। लेहाज़ा इस सिलसिले में तेरे ही लिये हम्द व सताइश है। ऐ तमाम जहान के परवरदिगार।

No comments:

Post a Comment