Monday 9 January 2012

Sahifa-e-Kamila, Sajjadia 4th dua (urdu tarjuma in HINDI) by imam zainul abedin a.s.


चौथी दुआ
अम्बिया व ताबेईन और उन पर ईमान वालों के हक़ में हज़रत की दुआ
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम
ऐ अल्लाह! तू अहले ज़मीन से रसूलों की पैरवी करने वालों और उन मोमेनीन को अपनी मग़फ़ेरत और ख़ुशनूदी के साथ याद फ़रमा जो ग़ैब की रू से उन पर ईमान लाए। उस वक़्त के जब दुश्मन उनके झुठलाने के दरपै थे और उस वक़्त के जब वह ईमान की हक़ीक़तों की रोशनी में उनके (ज़ुहूर के) मुश्ताक़ थे। हर उस दौर और हर उस ज़माने में जिसमें तूने कोई रसूल भेजा और वक़्त के लोगों के लिये कोई रहनुमा मुक़र्रर किया। हज़रत आदम (अ0) के वक़्त से लेकर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के अहद तक जो हिदायत के पेशवा और साहेबाने तक़वा के सरबराह थे (उन सब पर सलाम हो) बारे इलाहा! ख़ुसूसियत से असहाबे मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम में से वह अफ़राद जिन्होंने पूरी तरह पैग़म्बर (स0) का साथ दिया और उनकी नुसरत में पूरी शुजाअत का मुज़ाहेरा किया और उनकी मदद पर कमरबस्ता रहे और उन पर ईमान लाने में जल्दी और उनकी दावत की तरफ़ सबक़त की, और जब पैग़म्बर (स0) ने अपनी रिसालत की दलीलें उनके गोशगुज़ार की ंतो उन्होंने लब्बैक कहा और उनका बोलबाला करने के लिये बीवी बच्चों को छोड़ दिया और अम्रे नबूवत के इस्तेहकाम के लिये बाप और बेटों तक से जंगें कीं और नबी-ए-अकरम (स0) के वजूद की बरकत से काम याबी हासिल की, इस हालत में के उनकी मोहब्बत दिल के हर रग व रेशे में लिये हुए थे और उनकी मोहब्बत व दोस्ती में ऐसी नफ़ा बख़्श तिजारत के मुतवक़्क़ो थे जिसमें कभी नुक़सान न हो। और जब उनके दीन के बन्धन से वाबस्ता हुए तो उनके क़ौम क़बीले ने उन्हें छोड़ दिया। और जब उनके सायए क़र्ब में सन्ज़िल की तो अपने बेगाने हो गए। तो ऐ मेरे माबूद! उन्होंने तेरी ख़ातिर और तेरी राह में जो सब को छोड़ दिया तो (जज़ा के मौक़े पर) उन्हें फ़रामोश न कीजो और उनकी इस फ़िदाकारी और ख़ल्क़े ख़ुदा को तेरे दीन पर जमा करने और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के साथ दाई हक़ बन कर खड़ा होने के सिले में उन्हें अपनी ख़ुशनूदी से सरफ़राज़ व शाद काम फ़रमा और उन्हें इस अम्र पर भी जज़ा दे के उन्होंने तेरी ख़ातिर अपने क़ौम क़बीले के शहरों से हिजरत की और वुसअते मआश से तंगीए मआश में जा पड़े और यूं ही उन मज़लूमों की ख़ुशनूदी का सामान करके जिनकी तादाद को तूने अपने दीन को ग़लबा देने के लिये बढ़ाया बारे इलाहा! जिन्होंने असहाबे रसूल (स0) की अहसन तरीक़ से पैरवी की उन्हें बेहतरीन जज़ाए ख़ैर दे जो हमेशा यह दुआ करते रहे के ‘‘ऐ हमारे परवरदिगार! तू हमें और हमारे उन भाइयों को बख़्श दे जो ईमान लाने में हमसे सबक़त ले गये’’ और जिनका सतहे नज़र असहाब का तरीक़ रहा और उन्हीं का तौर तरीक़ा इख़्तेयार किया औन उन्हीं की रविश पर गामज़न हुए। उनकी बसीरत में कभी शुबह का गुज़र नहीं हुआ के उन्हें (राहे हक़ से) मुन्हरिफ़ करता और उनके नक़शे क़दम पर गाम फ़रमाई और उनके रौशन तर्ज़े अमल की इक़्तेदार में उन्हीं की शक व तरद्दुद ने परेशान नहीं किया वह असहाबे नबी (स0) के मआवुन व दोस्तगीर और दीन में उनके पैरोकार और सीरत व इख़लाक़ में उनसे दर्स आमोज़ रहे और हमेशा उनके हमनवा रहे और उनके पहँुचाए हुए एहकाम में उन पर कोई इल्ज़ाम न वुसरा।   बारे इलाहा! उन ताबेईन और उनकी अज़वाज और आल व औलाद और उनमें से जो तेरे फ़रमाँबरदार व मुतीअ हैं उनपर आज से लेकर रोज़े क़यामत तक दूरूद व रहमत भेज। ऐसी रहमत जिसके ज़रिये तू उन्हें मासियत से बचाए। जन्नत के गुलज़ारों में फ़राख़ी व वुसअत दे। शैतान के मक्र से महफ़ूज़ा रखे और जिस कारे ख़ैर में तुझसे मदद चाहें उनकी मदद करे और शब व रोज़ के हवादिस से सिवाए किसी नवीदे ख़ैर के इनकी निगेहदाश्त करे और इस बात पर उन्हें आमादा करे के वह तुझसे हुस्ने उम्मीद का अक़ीदा वाबस्ता रखें और तेरे हाँ की नेमतों की ख़्वाहिश करें और बन्दों के हाथों में फ़राख़ी नेमत को देखकर तुझ पर (बे इन्साफ़ी का) इल्ज़ाम न धरें ताके उनका रूख़ अपने उम्मीद व बीम  की तरफ़ फेर दे और दुनिया की वुसअत व फ़राख़ी से बे तअल्लुक़ कर दे और अमले आख़ेरत और मौत के बाद की मन्ज़िल का साज़ व बर्ग मुहय्या करना उनकी निगाहों में ख़ुश आईन्द बना दे और रूहों के जिस्मों से जुदा होने के दिन हर कर्ब व अन्दोह जो उन पर वारिद हो आसान कर दे और फ़ित्ना व आज़माईश से पैदा होने वाले ख़तरात और जहन्नुम की शिद्दत और इसमें हमेशा पड़े रहने से निजात दे और उन्हें जा-ए अमन की तरफ़ जो परहेज़गारों की आसाइशगाह है, मुन्तक़िल कर दे।



हज़रत ने इस दुआ में सहाबा व ताबेईन बिलएहसान और साबेक़ीन बिल ईमान  के लिये कलेमात तरहम इरशाद फ़रमाए हैं और हस्बे इरशादे इलाही के अहले ईमान गुज़रे हुए अहद के मोमेनीन के लिये दुआ करते हुए कहते हैं के ‘‘रब्बेनग़ फ़िरलना .............बिल ईमान’’। ऐ हमारे परवरदिगार! तू हमें और हमारे उन भाईयों को बख़्श दे जो ईमान लाने में हमसे सबक़त ले गये’’ उनके लिये दुआए अफ़ो व मग़फ़ेरत फ़रमाते हैं। इमाम अलैहिस्सलाम के तर्ज़े अमल और इस आयाए क़ुरानी से हमें यह दर्स हासिल होता है के जो मोमेनीन रहमते इलाही के जवार में पहुंच चुके हैं उनके लिये हमारी ज़बान से कलेमाते तरह्हम निकलें और उनकी सबक़ते ईमानी के पेशे नज़र उनके लिये दुआए मग़फ़ेरत करें और यह हक़ीक़त भी वाज़ेह हो जाती है के ईमान में सबक़त हासिल करना भी फ़ज़ीलत का एक बड़ा दरजा है। तो इस लिहाज़ से सबक़त ले जाने वालों में सबसे ज़्यादा फ़ज़ीलत का हामिल वह होगा जो उन सबसे साबिक़ हो और यह मुसल्लेमए अम्र है के सबसे पहले ईमान में सबक़त करने वाले अमीरूल मोमेनीन अली (अ0) इब्ने अबी तालिब अलैहिस्सलाम थे। चुनांचे इब्ने अब्दुल बरीकी ने तहरीर किया है--
’’रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के बाद जो सबसे पहले अल्लाह तआला पर ईमान लाया वह अली इब्ने अबी तालिब अलैहिस्सलाम थे’’
ख़ुदावन्दे आलम ने अपने इरशाद - ‘‘ऐ हमारे परवरदिगार! तू हमें और हमारे उन भाईयों को जो ईमान में हमसे साबिक़ थे बख़्श दे, की रू से हर मुसलमान पर अपने कलाम में यह फ़रीज़ा आयद कर दिया है के वह अली (अ0) इब्ने अबी तालिब अलैहिस्सलाम के लिये दुआए मग़फ़ेरत व रहमत करता रहे। लेहाज़ा हर वह शख़्स जो अली (अ0) इब्ने अबी तालिब अलैहिस्सलाम के बाद ईमान लाए वह आप (अ0) के हक़ में दुआए मग़फ़ेरत करे। (शरह इब्ने अबी अल हदीद जि0 3, स0 256)
बहरहाल जिन सहाबा और साबेक़ीन बिल ईमान का इस दुआ में तज़किरा है वह असहाब थे जिन्होंने मरहले पर फ़िदाकारी के जौहर दिखाए, बातिल की ताग़ूती क़ूवतो ंके सामने सीना सिपर रहे।  रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम के असवए हुस्ना के सांचे में अपनी ज़िन्दगियों को ढाल के दूसरों के लिये मिनारे हिदायत क़ायम कर गए और जादहो हक़ की निशानदेही और इस्लाम की सही तालीमात की तरफ़ रहनुमाई करते रहे, दीन की ख़ातिर हर क़ुर्बानी पर आमादा नज़र आये। क़ौम क़बीले को छोड़ा। बीवी बच्चों से मुंह मोड़ा, घर से बेघर हुए, जंग की शाद फ़िशानियों में तलवारों के वार सहे और सब्रो इस्तेक़लाल के साथ दुश्मन के मुक़ाबले में जम कर लड़े, जिससे इस्लाम इनका दहीने मन्नत और अहले इस्लाम इनके  ज़ेरे एहसान हैं क्या सलमान, अबूज़र, मिक़दाद, अम्मार इब्ने यासिर, ख़बाब इब्ने अरत, बिलाल इब्ने रबाह, क़ैस इब्ने सअद, जारिया इब्ने क़दामा, हज्र इब्ने अदमी, हज़ीफ़ा इब्ने अलयमान, हुन्ज़ला इब्ने नामान, ख़ज़ीमा इब्ने साबित, अहनफ़ इब्ने क़ैस, अम्रो इब्ने अलहमक़, उस्मान बिन हनीफ़ ऐसे जलील अलक़द्र सहाबा को अहले इस्लाम फ़रामोश कर सकते हैं जिनकी जान फ़रोशाना खि़दमात के तज़किरों से तारीख़ का दामन छलक रहा है।
यह ज़ाहिर है के यह दुआ अहदे नबवी (स0) के तमाम मुसलमानों को शामिल नहीं है क्योंके इनमें ऐसे भी थे जो बन्से क़ुरानी फ़ासिक़ थे जैसे वलीद इब्ने अक़बा। ऐसे भी थे जिन्हें पैग़म्बर (स0) ने फ़ित्ना परवरी व शरअंगेज़ी की वजह से शहर बदर कर दिया गया था जैसे हकम इब्ने आस और उसका बेटा मरवान। ऐसे भी थे जिन्होंने महज़ हुसूले इक़्तेदार व तलब व जाह के लिये अहलेबैत (अ0) रसूल (स0) से जंगें कीं। जैसे माविया, अम्रो इब्ने आस, बसर इब्ने अबी इरतात, जीब इब्ने मुसलमह, अम्रो इब्ने सअद वग़ैरह। ऐसे भी थे जो पैग़म्बर (स0) को मस्जिद में तन्हा छोड़कर अलग हो जाते थे। चुनांचे इरशादे बारे हैः- ‘‘वएज़ा ........................... क़ाएमन’’ (यह वह हैं के जब कोई तिजारत या बेहूदगी की बात देखते हैं तो उसकी तरफ़ टूट पड़ते हैं और तुमको खड़ा हुआ छोड़ जाते हैं)  और ऐसे भी थे जिनके दिमाग़ों में जाहेलीयत की बू बसी हुई थी और पैग़म्बर (स0) अकरम की रेहलत के बाद अपनी साबेक़ा सीरत की तरफ़ पलट गए, चुनांचे मुहम्मद इब्ने इस्माईल बुख़ारी यह हदीस तहरीर करते हैं-
‘‘फ़रमाया के क़यामत के दिन मेरे असहाब की एक जमाअत मेरे पास आएगी। जिसे हौज़े कौसर से हटा दिया जाएगा। मैं इस मौक़े पर कहूंगा के ऐ मेरे परवरदिगार। यह तो मेरे हैं इरशाद होगा के तुम्हें ख़बर नहीं है के इन्होंने तुम्हारे बाद दीन में क्या क्या बिदअतें कीं। यह तो उलटे पाँव अपने साबेक़ा मज़हब की तरफ़ पलट गए थे।’’  (सही बुख़ारी बाबुल हौज़)
इन हालात में उन सबके मुताल्लिक़ हुस्ने अक़ीदत रखना और उन सबको एक सा आदिल क़रार दे लेना एक तक़लीदी अक़बेदत का नतीजा तो हो सकता है मगर वाक़ेआत व हक़ाएक़ की रौशनी में परखने के बाद इस अक़ीदे पर बरक़रार रहना बहुत मुश्किल है। आखि़र एक होशमन्द इन्सान यह सोचने पर मजबूर होगा के पैग़म्बर (स0) के रेहलत फ़रमाते ही यह एकदम इन्क़ेलाब कैसे रूनुमा हो गया के उनकी ज़िन्दगी में तो उनके मरातिब व दरजात, में इम्तियाज़ हो और अब सबके सब एक सतह पर आकर आदिल क़रार पा जाएं और उन्हें हर तरह के नक़्द व जिरह से बालातर समझते हुए अपनी अक़ीदत का मरकज़ बना लिया जाए। आखि़र क्यों? बेशक बैअत रिज़वान के मौक़े पर अल्लाह तआला ने उनके मुताल्लिक़ अपनी ख़ुशनूदी का इज़हार किया चुनांचे इरशादे इलाही है- ‘‘लक़द ...................... शजरता’’ (जिस वक़्त ईमान लाने वाले तुमसे दरख़्त के नीचे बैअत कर रहे थे तो ख़ुदा उनकी इस बात से ज़रूर ख़ुश हुआ) - तो इस एक बात से ख़ुशनूद होने के मानी यह नहीं होंगे के बस अब उनका हर अमल और हर एक़दाम रज़ामन्दी ही का तर्जुमान होगा और अब वह जो चाहें करें यह ख़ुशनूदी उनके शरीके हाल ही रहेगी, और फिर यह के ख़ुदा वन्दे आलम ने इस आयत में अपनी रज़ामन्दी को सिर्फ़ बैअत से वाबस्ता नहीं किया बल्कि बैअत और ईमान दोनों के मजमूए से वाबस्ता किया है। लेहाज़ा यह रज़ामन्दी सिर्फ़ उनसे मुताल्लिक़ होगी जो दिल से ईमान लाए हों। और अगर कोई मुनाफ़िक़त के साथ इज़हारे इस्लाम करके बैअत करे तो उससे रज़ामन्दी का ताअल्लुक़ साबित नहीं होगा। और फिर जहां यह रज़ामन्दी साबित हो वहाँ यह कहाँ ज़रूरी है के वह बाक़ी व बरक़रार रहेगी। क्योंके यह ख़ुशनूदी तो इस मुआहेदे पर मबनी थी के वह दुश्मन के मुक़ाबले में पैग़म्बर (स0) अकरम का साथ नहीं छोड़ेंगे और जेहाद के मौक़े पर जम कर हरीफ़ का मुक़ाबला करेंगे। तो अगर वह इस मुआहेदे के तक़ाज़ों को नज़रअन्दाज़ करके मैदान से मुंह मोड़ लें और बैअत के मातहत किये हुए क़ौल व क़रार को पूरा न करें तो यह ख़ुशनूदी कहां बाक़ी रह सकती है। और वाक़ेआत यह बताते हैं के इनमें से ऐसे अफ़राद भी थे जिन्होंने इस मुआहेदे को दरख़ोरे अक़ना नहीं समझा और हिमायते पैग़म्बर (स0) के फ़रीज़े को नज़रअन्दाज़ कर दिया। चुनांचे जंगे हनीन इसकी शाहिद है के जो इस्लाम की आखि़री जंग थी। अगरचे इसके बाद ग़ज़वए ताएफ़ व ग़ज़वए तबूक पेश आया। मगर इन गज़वों में जंग की नौबत नहीं आई। इस आखि़री मारेके में मुसलमानों की तादाद चार हज़ार से ज़्यादा थी जो दुश्मन की फ़ौज से कहीं ज़्यादा थी मगर इतनी बड़ी फ़ौज में से सिर्फ़ सात आदमी निकले जो मैदान में जमे रहे और बाक़ी दुश्मनों के मुक़ाबले में छोड़कर चले गये। चुनांचे क़ुरान मजीद है- ‘‘वज़ाक़त .............. मुदब्बेरीन’’ (ज़मीन अपनी वुसअत के बावजूद तुम पर तंग हो गई फिर तुम पीठ फिराकर चल दिये यह कोई और न थे बल्कि वही लोग थे जो बैअते रिज़वान में शरीक थे) चुनांचे पैग़म्बर (स0) ने इस मुआहेदे का ज़िक्र करते हुए अब्बास (र0) से फ़रमाया - ‘‘उन दरख़्त के नीचे बैअत करने वाले मुहाजिरों को पुकारो और उन पनाह देने वाले और मदद करने वाले अन्सार को ललकारो’’
क्या इस मौक़े पर यह तसव्वुर किया जा सकता है के अल्लाह की ख़ुशनूदी उनके शामिले हाल रही होगी, हरगिज़ नहीं, क्योंके वह ख़ुशनूदी तो सिर्फ़ मुआहेदे से वाबस्ता थी और जब इस मुआहेदे की पाबन्दी न की जा सकी तो ख़ुशनूदी के क्या मानी, और बैअते रिज़वान में शामिल होने वाले भी यह समझते थे के अल्लाह की ख़ुशनूदी बशर्ते इस्तवारी ही बाक़ी रह सकती थी, चुनांचे मोहम्मद इब्ने इस्माईल बुख़ारी तहरीर करते हैं -
हिलाल इब्ने मुसय्यब अपने बाप से रिवायत करते हैं के उन्होंने कहा के मैंने बरा इब्ने आज़िब से मुलाक़ात की और उनसे कहा के ख़ुशानसीब तुम्हारे के तुम नबी (स0) की सोहबत में रहे और दरख़्त के नीचे उनके हाथ पर बैअत की। फ़रमाया के ऐ बरादर ज़ादे। तुमने नहीं जानते के हमने उनके बाद क्या-क्या बिदअतें पैदा कीं’’ (सही बुख़ारी जि0 3- सफ़ा 30)
लेहाज़ा महज़ सहाबियत कोई दलीले अदालत है और न बैअते रिज़वान से उनकी अदालत पर दलील लाई जा सकती है।

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